हाशिमपुरा की बरसी पर सब आंसू बहा रहे हैं तो सोचा हम भी थोड़ी सियासत करलें। अदालत में इंसाफ की क़तार में लगे उन ग़रीब बढ़ई और जुलाहों को याद करलें जो अपनी दिहाड़ी गंवाकर अदालत की सीढ़ी पर भिखारी से बैठ जाते थे। जिनके लिए न आंसू बहाने वाले आते थे, न मदद के दावे करने वाले और न क़ौम के नामी बैरिस्टर और वकील। सोचता हूं वो कौन लोग थे जो इन हारे हुए लोगों की पैरवी कर रहे थे। ये कूफे में कौन थे जो वहब और जौन की तरह हारने वालों के साथ आकर खड़े हो गए थे। बहरहाल हाशिमपुरा के काले चेहरे का एक उजला सच ये भी है कि विभूती नारायण राय न होते तो हाशिमपुरा मुरादनगर की नहर में बह गया होता। वॄंदा ग्रोवर और रेबेका जाॅन न होतीं तो कोर्ट में आपके कोई पैरोकार तक न होते। आपके सालार ख़ान जैसे वकील तो यज़ीद को ख़लीफा बना चुके होते और मुलज़िमों को चुपके से बचाकर निकल लेते । इससे भी पहले अगर प्रवीण जैन के दिल मे बेईमानी आ गयी होती तो हाशिमपुरा की दर्दनाक हक़ीक़त कौन रावी आकर सुनाता? आपकी आज की फेसबुक क्रांति में आपकी बेईमानियों के क़िस्से दब गए होते मियांजी। कौन पता करता कि कोर्ट में गवाही से पलटने वाले ग़यूर कौन थे? कौन पता लगाता कि जो घरों में बैठे रहे मगर कभी कोर्ट में पैरवी को न गए वो पड़ोसी कौन थे। बहरहाल, हाशिमपुरा की तस्वीर के पीछे आपकी कूफे वाली फितरतें नुमाया होती हैं। आराम से घर में बैठिए। मत पता कीजिए अदालत में वकील को क्या चाहिए, कहां दलील देनी है, कहां गवाही देनी है, कहां पैसा देना है और किसकी मदद करनी है? जब अदालत फैसला सुना दे तो जम्हूरियत, सेक्युरिज़्म और अदालत की अंधी देवी को कोसिए और फिर सो जाईए। साल में एक बार बरसी मनाईए और फोटो खिंचाइए। मुर्दा क़ौम ऐसे ही करती हैं। सियासत वैसे भी सबसे आसान शेवा है। लड़ना कर्बला के ज़माने से ही भारी काम रहा है।
Zaigham Murtaza
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