ये लेख पसमांदा मुसलमानों के लिये- एक सबक है....
कांशीराम अगर एनजीओ खोलते, जगह जगह “देश बचाओ, लोकतंत्र बचाओ” नामक नाटक करते तो दलित समाज कभी राजनीतिक रूप से नहीं उभर पाता। वो भी मुसलमानों की तरह फुटबाल बना रहता, कभी कोई सेक्युलर इधर से लात मारता तो कभी लेफ़्ट से लेकर समाजवादी दल उधर से लतियाते।
कांशीराम ने दलितों को मानसिक ग़ुलामी से आज़ाद कराया, उन्हें बताया कि तुम भी राजा बन सकते हो। और अपनी आँखों के सामने राजा बनाके दिखाया भी।
कांशीराम ने क़ौमी एकता के नाम पर मुशायरा नहीं करवाया, होली-ईद मिलन का नाटक नहीं कराया। दलित बस्तियों में मानवाधिकार का कैम्प लगाकर लेफ़्ट के लोगों को बुलाकर राष्ट्र और मानवता पर भाषण नहीं दिलवाया, सवर्णों को बुलाकर दलितों के मसले हल करने को नहीं कहा, बल्कि अपने समाज में से हज़ारों लोगों को बाहर निकाला और उन्हें आने वाले कल का योद्धा बनाया।
कांशीराम के समय में भी दलित उत्पीड़न बहुत अधिक था पर कांशीराम ने उसपर अधिक फ़ोकस नहीं किया क्योंकि उन्हें पता था कि ये तब तक रुकने वाला नहीं है जबतक हमारे समाज की सियासत मज़बूत नहीं होगी।
अगर कांशीराम भी कांग्रेस और लेफ़्ट के साथ मिलकर अपने समाज का उद्धार करने की कोशिश करते तो दलितों की आज ये हालत हो जाती जितना पाँच हज़ार साल पहले भी नहीं हुआ करती थी।
मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार का मसला शुद्ध रूप से मुसलमानों की राजनीतिक विफलता का परिणाम है, और ये कभी भी नहीं रुकेगा जबतक इस क़ौम के सियासत की जड़ें मज़बूत नहीं होंगी।
आख़िर क्या वजह है कि बहुत से मुल्कों में जहाँ मुसलमानों की आबादी दस प्रतिशत से भी कम है वहाँ पर मुस्लिम पॉलिटिक्स उभर गई पर भारत में आजतक नहीं उभर पाई?
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Sraymeer Xpress
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