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Monday 23 July 2018

ऐ मुस्लिम क़ौम क्या तुम ने कभी अपने गिरेबान में झांक कर देखा है ? :- शाहबाज़ रशादी राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल

ऐ मुस्लिम क़ौम क्या तुम ने कभी अपने गिरेबान में झांक कर देखा है ?

#मौलाना_आमिर_रशादी_मदनी का न सियासत में कोई बैकग्राउंड था न ही कोई सियासी ख़ानदान...न उन्होंने सत्ता का कभी सुख भोगा न ही कभी सत्ता में रहे .. आम आलिमों की तरह वो इस धरती पर जी रहे थे मस़रूफ़ थे ।

बटला हाउस इनकाउंटर के बाद पूरे देश में हाहाकार की स्थिति मची हुई थी .. आज़मगढ़ को आतंकगढ़ की उपाधि देने का सिलसिला चरम पर था ।

ज़बानें ख़ामोश थी सर पर ख़ौफनाक डर का साया मंडरा रहा था .. पूरे देश में तमाम ढोंगी मुस्लिम मसीहा ख़ामोशी की चादर ओढ़ कर सोए हुए थे।

लेकिन इस मिट्टी के इंसान ने लखनऊ दिल्ली की नाक में दम कर दिया .. सरकारी ख़ौफ की सलाख़ों को पिघला कर राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल नाम की ढाल बना दिया .. आज उसी मर्द-ए-मुजाहिद को हम आमिर रशादी मदनी के नाम से जानते हैं ।

लेकिन इसी राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल का वजूद में आना सेक्यूलरिज्म पार्टी के ग़ुलामों को रास नहीं आया, मसीहाओं की नज़र लग गई ... और फिर खेल शुरू हुआ इसे तोड़ने का .. तोड़ने वाले भी कोई ग़ैर नहीं बल्कि सेक्यूलरों के गुलाम मुसलमान थे, ढोंगी मसीहा थे आज भी हैं ... तमाम तरह के आरोपों का वज़नी गठ्ठर लाद कर इस मिट्टी से बने इंसान को धूल बनाने की कोशिश हुई तमाम तरह के इल्ज़ामात लगाए गए और आज भी लगाए जाते हैं ।

दस साल का वक़फ़ा बीत गया लेकिन ये इंसान आज भी ज़मीन पर ज़ालिमों से लड़ रहा है इतिहास है और कोई बता दे कि ज़मीन पर बग़ैर सत्ता के चंद अफ़राद को लेकर जिस जवांमर्दी से यह इंसान दस वर्षों से लड़ रहा है और किस किस ने लड़ा है ?
आए दिन यही इंसान कभी पुलिस से, एसटीएफ से, एटीएस से तो कभी सत्ताधारियों से बेकसूरों मज़लूमों को इंसाफ दिलाता है उनके चंगुल से आज़ाद कराता है ।
दरअसल आज जो जनता त्राहि-त्राहि हो कर चिल्ला रही है कि माब लिचिंग पर मुस्लिम क़यादत वालों को आगे आना होगा, एक जुट होना होगा, संघर्ष करना होगा ... मुझे एक नौटंकी लगती है आज मुस्लिमों के अंदर एक डर बसा है जिस दिन ये डर निकल जाएगा .. यही जनता फिर इन्हीं रहनुमाओं को गालियां देंगी, गद्दार, दलाल कह कर पुकारेगी ।

ऐ मुस्लिम क़ौम क्या तुम ने कभी अपने गिरेबान में झांक कर देखा है ?

नौटंकी बाज़ हो तुम, डरपोक हो, मफ़ाद परस्त हो, ग़ुलाम हो गये हो तुम लोग ।
तुम ने हमेशा मफ़ाद निकलने पर अपने रहनुमाओं को छला है, आरोप लगाया है/लगाते हो, तुम बहकने वालों में से हो बिकने वालों में से हो, कोई ऐसा चुनाव नहीं जिसमें तुम बहकते नहीं बिकते नहीं डरते नहीं और पछतावा तुम्हें बाद में होता है फिर बहकते हो फिर पछताते हो यही इतिहास रहा है इस भारतीय लोकतंत्र में ।

हमेशा अपनी कमियों को छुपा कर रहनुमाओं पर आरोप लगाते तुम थके नहीं .. तुम बेबस और लाचार कर देते हो रहनुमाओं को .. और फिर वो सब कुछ छोड़ देता है और तुम फिर एक बार जशन मनाते हो कि देखो हमारी बात सिद्ध हो गई यह दलाल ही था ।

आज फिर तुम देश में जगह जगह हो रही माब लिंचिंग पर किसी ऐसे ही मुजाहिद रहनुमा के अपने साथ खड़े होने की उम्मीद पर टकटकी लगाए बैठे हो ।

अरे हां, ये तो बताना भूल ही गया .. ज़मीन पर बार बार ऐसे मुजाहिद पैदा नहीं होते ।

(यह लेख किसी पर तंज़ नहीं है बल्कि एक हक़ीक़त है और इस हक़ीक़त को क़ुबूल करें बग़ैर किसी शर्मिंदगी के)
शाहबाज़ रशादी

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