हारून रशीद
आज़मगढ़! राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल का आख़िर वजूद ही क्यूं हुआ ? सवाल तो खड़े होंगे ।
याद करने पे भी दोस्त आए न याद,
दोस्तों के करम याद आते रहे।
मैं उन विरोधियों से, सपा के मुस्लिम भक्तों से बड़े विनम्र सुर में पूछना चाहता हूं कि यदि बटला हाउस इनकाउंटर के समय इनके नेता, मान लीजिए आज़मगढ़ के मुस्लिम नेता ही जिसमें पूर्व विधायक वसीम अहमद, वर्तमान विधायक श्री आलमबदी साहब, अपने आप को मुसलमानों के मसीहा कहने वाले महाराष्ट्र सपा अध्यक्ष अबु आसिम आज़मी साहब आदि लोग अगर बटला हाउस के मुद्दे पर सिर्फ़ एक सम्मेलन न करके सही ढंग से इस मामले को देखे होते, आगे तक लड़ाई जारी रखे होते क्या राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल का वजूद होता?
मैं समझता हूं कि यदि यह लोग सही ढंग से मामले को लेकर चले होते तो राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल बनती ही नहीं और न बनाने की कोई ज़रूरत पड़ती ।
आज़मगढ़ का अधिकतर मुसलमान सपा वोटर ही था, और मुस्लिम एंव यादव विधायक सांसद इन वोटों से लगातार चुने जाते रहे और आज भी चुने जाते हैं।
ऐसे में सपा को बढ़-चढ़ कर बटला हाउस मामले में आना चाहिए था परंतु उसने सिर्फ़ जनता के गुस्से को देखते हुए मात्र एक सम्मेलन किया, सिर्फ़ जनता के ग़ुस्से को शांत करने के लिए, क्यूंकि यदि कुछ करना होता तो सपा नेता इस मामले में आगे तक बढ़ चढ़ कर रहते, लेकिन उस एक सम्मेलन के बाद कुछ नहीं हुआ और बता दूं कि उस समय सपा कांग्रेस को सेंट्रल में समर्थन भी कर रही थी।
लिहाज़ा ख़ौफ़-ओ-हेरास के माहौल में एक तहरीक का आग़ाज़ हुआ और उसने बढ़-चढ़ कर दिल्ली से लेकर लखनऊ तक में ज़ोरदार प्रर्दशन किया .. और मज़बूरन राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल को वजूद में आना ही पड़ा ।
और अब बतौर एक सियासी पार्टी के नाम से लगातार दस वर्षों से हर एक मामले को ज़ोरदार ढंग से देश के विभिन्न भागों में बेबाक़ी से आवाज़ उठाती आ रही है और इंशा अल्लाह उठाती रहेगी ।
ज़्यादा फ़िक्र न कीजिए जब आप के भी किसी मामले में और लोग सोचेंगे तब सबसे पहले यही राष्ट्रीय ओलमा कौंसिल आप के दरवाज़े पर खड़ी होगी ।
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