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Sunday 4 February 2018

हत्याओं के साथ हत्याओं की तुलना और बैलेंस बनाने की क़वायद..

हत्याओं के साथ हत्याओं की तुलना और बैलेंस बनाने की क़वायद.. 
दिल्ली में एक 22 वर्षीय युवक अंकित सक्सेना की मुस्लिम लड़की से प्रेम करने के कारण के कारण लड़की के परिवार वालों द्वारा निर्मम हत्या कर दी गयी जो किसी भी सभ्य मानव समाज मे स्वीकार्य किये जाने योग्य नही हो सकती और इस हत्या को न्यायसंगत कहने वाले इंसान नही कहे जा सकते.
लेकिन अंकित की हत्या के बाद जिस तरह तथाकथित लिबरल तबक़े ने बैलेंस बनाये रखने हेतु अंकित की हत्या को एख़लाक़ से ले कर अफराज़ूल की हत्या के समान श्रेणी में लिखते हुए क़लम तोड़ना शुरू किया है वो भी कम हास्यपद नही है. कुछ दिनों पहले कासगंज साम्प्रदायिक हिंसा में प्राण गंवाने वाले चंदन गुप्ता की हत्या को भी एखलाक़ से ले कर जुनैद और अफराज़ूल कि हत्या के बराबर बताने में लोग एक दूसरे को पछाड़ रहे थे.ऐसा करते हुए कहीं न कहीं ये तथाकथित लिबरल तब्क़ा संघी आतंकियों के सामने डिफेंसिव मोड में दिखाई पड़ता है.
इन सभी हत्याओं में मानसिकता अवश्य नफ़रत ही है लेकिन तात्कालिक कारण बिल्कुल अलग हैं और सबसे बढ़ कर इन हत्याओं के पीछे की मंशा को इन हत्याओं की चर्चा करते हुए ध्यान में रखना ज़रूरी है.
एखलाक़ से ले कर अफराज़ूल की हत्या उस विचारधारा के शस्त्र से की गई है जिसकी नींव आज से 9 दशक पहले भारत मे रखी गयी थी और जिसके मूल में है एक पूरे समुदाय को धर्म के आधार पर आतंकित कर उसकी आर्थिक समाजिक राजनीतिक उन्नत्ति के तमाम रास्तों की बन्द करना,उसके लिए षड्यंत्र करते रहना और दूसरी तरफ़ एक समुदाय को एक काल्पनिक दुश्मन का भय दिखा कर भयक्रान्त रखते हुए सत्ता पर क़ब्ज़ा बनाये रखना..
जबकी अंकित की हत्या के पीछे नफ़रत तो है लेकिन एक पूरे समुदाय को आतंकित करने की मंशा नही है. इस बात से भी आप इनकार नही कर सकते के अंकित की जगह कोई इमरान भी होता तो भी उसकी हत्या होती क्योंकि हत्या के पीछे जो मानसिकता है यानी खोखली प्रतिष्ठा और समाज मे इज़्ज़त जैसी सोच वो किसी इमरान का क़त्ल करवा देती है और किसी अंकित का भी.
क़ातिल अंकित का स्वधर्मी भी हो सकता है और इमरान के स्वधर्मी भी.सैकड़ों उदाहरण हैं ऐसे.
एक लंबी फ़ेहरिस्त बनाई जा सकती है ।
पश्चिम बंगाल में इमरान टोडी की हत्या काफ़ी चर्चित रही है जिसकी हत्या का आरोप लक्स हौज़ीरि के मालिकों पर रहा है.
साल भर पहले झारखंड के मोहम्मद सालिक की हिन्दू लड़की से प्रेम करने के कारण लड़की के घर वालों द्वारा पेड़ से बांध कर पीट पीट कर हत्या की गई.
पिछले साल अक्टूबर में एक संदिग्ध ऑनर किलिंग मामले में दिल्ली पुलिस के एक हेड कॉन्स्टेबल और उनकी पत्नी पर अपनी 20 साल की बेटी की मौत की साजिश में शामिल होने के आरोप लगे.खबरों के मुताबिक झज्जर के सुरहेती गांव में रहने वाले दंपती अपनी नर्सिंग स्टूडेंट बेटी वंदना के पड़ोसी गांव के एक लड़के राहुल से अफेयर के चलते नाराज थे और इस कारण परिवार वालों ने लड़की की हत्या कर दी.
बहुत लंबी लिस्ट है.
लेकिन जिस तरह इन आपराधिक हत्यायों को एक पूरे समुदाय को आतंकित करने के लिए की गई हत्याओं से तुलना कर बैलेंस बनाने की क़वायद शुरू हुई है वो इस बात की ज़मानत है के संघी आतंकियों के सामने आप बेबस हो चुके हैं के सच कह तो रहे हैं लेकिन उस पर भी एक मनोवैज्ञानिक दबाव है.
क्या ऐसे मामलों में किसी हिन्दू लड़के का किसी,हिन्दू लड़की से प्रेम के कारण लड़की के हिन्दू परिवार वाले उस हिन्दू लड़के की हत्या नही करते ??
क्या उस हत्या की तुलना भी एखलाक़ की हत्या से की जा सकती है ??
क़तई नही.
यहां अंकित की हत्या की तुलना एखलाक़ से केवल इसलिए कि जा सकती है क्योंकि एखलाक़ को हिंदुओं ने मारा और अंकित को मुसलमानों ने.
इसलिए निंदा करते हुए एखलाक़ का एंगल सामने रखा जा रहा है.
हद तो तब हो गयी जब दँगा भड़काने वालों के साथ निकले दंगाई चंदन की हत्या की तुलना भी लोग जुनैद अफराज़ूल और एखलाक़ से करने लगे जबकी उसके हत्यारे आजतक संदिग्ध ही हैं.लेकिन अती सम्वेदनशील दिखने की चाहत ने लोगों से ये भी करवाया.चंदन जब देशभक्ति की आड़ में हिंसा और नफ़रत की खेती करने निकला था वो भूल गया था के वो स्वयं भी इसी हिंसा और नफ़रत का शिकार हो सकता है.
क्या वो तथाकथित लिबरल तब्क़ा ये बता सकता है के अंकित की हत्या के बाद हत्यारों के समर्थन में कितने मुसलमान खड़े हुए हैं और कितने मुसलामनों ने अंकित की हत्या पर हर्ष व्यक्त किया है ???
जबकि एखलाक़ से कर अफराज़ूल की हत्या के बाद न सिर्फ़ हत्यारों के समर्थन में पूरी एक सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी, उसके मंत्री, सांसद, कार्यकर्ता और एक बड़ा तबका खड़ा हुआ बल्कि खुले आम इन हत्याओं को जाएज़ ठहराने के लिए षड्यंत्र तक किये गए. खुले आम उसका जश्न तक मनाया गया.
कितने लोग दिखाई दिए अंकित की हत्या के बाद उसकी हत्या को जाएज़ ठहराते हुए ?
अगर तुलना होगी तो सभी पहलुओं को ध्यान के रखना होगा. हत्या की मानसिकता, उसके बाद कि जन प्रतिक्रियाएं इन तमाम पहलुओं को नज़रअंदाज़ कर केवल क़ातिल के मुस्लिम और मक़तूल के हिन्दू होने के कारण अगर आप एखलाक़ की हत्या के समान बताएंगे तो आप भी एखलाक़ के कातिलों के अप्रत्यक्ष हिमायत में खड़े नजर आएंगे..
ये जबरन सन्तुलनवादी बन कर अगर आप किसी एखलाक़ या अफराज़ूल के पक्ष में खड़े होंगे तो कोई ज़रूरत नही है ऐसी हिमायत की.
हत्या केवल हत्या है जिसकी निंदा होनी ही चाहिए.
हत्या किसी मिनहाज की हो या अंकित की. दुख हुआ स्वाभाविक है. लाज़मी है.
मैं भी अंकित के परिवार के सामने शर्मिंदा हूँ,इसलिए के इसी मुर्दा होते जा रहे समाज का हिस्सा हूँ और इसलिए भी के अंकित के क़ातिल मुसलमान हैं और मैं भी..

ख़ून अपना हो के पराया हो,
इब्न ए आदम का ख़ून है आख़िर.
Farrah Shakeb

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